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________________ 248 :-, विक्रम चरिश NAL ASNA A RE anASST KEEPERSON llIC/से महाराजा विक्रम राजकुमारीको सांढनी पर चढा कर चले. चित्र नं. 6 और बहुतसा द्रव्य जुगारमें मैं हार गया था, इस लिये वहाँ जाकर धन और तुम्हें देकर में ऋणसे मुक्त होना चाहता हूँ.” - यह सुनकर वह कन्या डरती हुई मार्गमें अपने कर्मकी निन्दा करने लगी. " मैंने बिना विचार किये ही यह कार्य कर लिया. अब इस मनुष्य से मेरा छुटकारा कैसे हो सकेगा ? मैंने सोचा था कुछ, परन्तु हो गया कुछ और ही. मैं अब क्या करे ?" राज़ कन्या बडे संकट में पड़ गई. सच ही कहा है, 'हरेक प्राणी के सुख या दुःखका कर्ता अथवा हर्ता अन्य कोई नही है. लोग अपने किये हुए कर्मका ही फल भोंगा करते हैं. ' अब हृदयमें सन्तोष कर लेना ही ठीक है, क्यों कि जो होनहार है वह होके ही रहेगा. भाग्यको दोष देनेसे क्या लाभ ? अब मैं छुट कर कहीं भी नहीं जा सकती.' . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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