________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरन्जनविजयसंयोजित श्री सिद्धाचलतीर्थ श्रीशत्रुञ्जय नामकरण __पूज्य गुरुदेव के. मुख कमल से श्री सिद्वाचलजी की अपूर्व महिमा सुनकर महाराजा विक्रमादित्य ने पूज्य सूरीश्वरजी से पूछा कि, "पूज्य गुरुदेव, ! यह परम पावनकारी श्री पुण्डरीकगिरि वर का शत्रुजय नाम किससे और कब हुआ वह कृपा करके फरमाइये / " श्री सूरीश्वर महाराज ने फरमाया कि “राजन् ! इस महातीर्थ की सहायता से 'शुकराज' ने बाह्य 1 और अभ्यंन्तर 2 शत्रु पर विजय प्राप्त की, तब से इस महातीर्थ का शत्रुजय नाम जग में प्रसिद्ध हुआ।" . महाराजा विक्रमादित्य ने श्रीसूरीश्वरजी से पुनः विनंती की, हे परम कृपालु गुरु देव ! कृपा कर शुकराजा की वह कथा हमें सुनाइये / तब श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वर महाराज शुकराजा की रोमांचक कथा कहने लगे। शुकराज की कथा आरंभउस नीति विशारद राजा की-थी ख्याति भुवन में बड़ी प्रभा, अति ठाठ बाट से रोज रोज लगती थी जिसकी राजसभा। पापों का खण्डन होता था, सुनवाई में अन्याय नहीं, नृप निर्णय पर खुश होती थी, जनता करती थी हाय नहीं / / - (1) बाह्य - बाहर के अन्य राजादिक (2) अभ्यंतरः-आंतरिक क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कर्म शत्रु / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust