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________________ 295 ~ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित दिखाओ' तो, तब मैंने उसे दिखाया. देखकर उस * व्यौपारीने लापरवाहीसे हँसकर कहा, 'तुमको साधारण पत्थर देकर किसीने ठग लिया.' तब मैंने कहा, 'मेरी पुत्रवधूने निर्वाह के लिये मुझे . दिया है.' व्यौपारीने कहा, 'तुमको उसने ही ठग लिया. ' बादमें मैं दूसरी दूकान पर गया और उसे दिखाया. परंतु उस व्यौपारीने भी पूर्ववत् ही कहा और मेरी खिल्ली उडाई. इस प्रकार मने घूम 'घूम कर बहुते से व्यौपारियों को दिखाया परंतु सभी ने कहा, 'यह पत्थर है.' तब मैंने सोचा, 'दुष्कर्म के प्रभाव से ही रत्न भी साधारण पत्थर बन गया.' बादमें खिन्न होकर मैं बजार के बाहर आया क्यों कि : 'फलता नही कदापि जगत में-कुक शील मति सुन्दरता; , 'पूर्व जन्म कृत कर्म वृक्ष ही फलते सुख दुःख वरषरता.' 'किसी को भी सुंदररूप कुल शील, विद्या अथवा सेवासे ‘फल नहीं मिलता बलके वृक्ष की भाँति पूर्व कृतकर्म और तपस्या निश्चय से फल देते हैं.'+ ... + नैवाकृति : फलति नैव कुलं न शीलम् , विद्या च नैव न च जन्मकृता च सेवा। कर्माणि पूर्व तपसा किल संचितानि. काले फलन्ति पुरुषस्य यथेह वृक्षाः // सर्ग 9/499 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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