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________________ , 296 विक्रम चरित्र बाजारके बाहर आकर जब मैंने अपने परिवारके किसी भी मनुष्यको नहीं देखा तब दुःखी होकर पुन: नगरमें गया और लकडी बेचकर तथा दूसरोंका काम करके बडे कष्टसे अपने पेटको भरता हुआ, फिरता फिरता यहाँ आया. इस प्रकार पूर्वकृत कर्मके फलको भोगता हुवा इधर-उधर भटकता ही था, कि तुमने मुझे देख लिया." पुत्रवधूने पूछा, "उस रत्नको फेंक दिया या आपके पास है।" मंत्रीने कहा, " वह मेरे वस्त्र में बंधा हुआ सुरक्षित है." पुत्रवधूने कहा, "वह मणि मुझको दिखाइये." इस प्रकार पुत्रवधूके कहने पर मंत्रीने उस रत्नको दिखाया. उस मणिको स्वभावसे तेजस्वी देखकर वे दोनों चौकन्ने रह गये-विस्मय हो गये. इसी प्रकार मंत्रीके तीनों पुत्रोका भी उसने पूछा और उन लोगोंने भी वैसा ही उत्तर देकर अपना अपना रत्न उसको पुनः दे दिया. वे रत्न भी अपने वास्तविक तेजसे युक्त दिखाई दिये. इसके बाद वह मतीसार अपनी छोटी पुत्रवधूका पूछ पूछ कर ही सब काये करने लगा. क्यों कि "जो अपने बुद्धयादि गुणोंसे विशिष्ट होते हैं, राजा, माता तथा पिता भी उनका सदा सन्मान करते हैं."+ . इस के बाद एक लाख मूल्य में एक रत्न बेचकर मंत्री अपन कुटुम्ब के साथ सुखसे अपने दिन बिताने लगा. क्यों कि पतिव्रता स्त्री, + यो बुद्धयादि गुणेः शिष्टविशिष्टो जायते जनः। सन्मान्यते महीपाल मातृपित्रादिभिः सदा ॥सर्ग 9508 / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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