________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 127 उन्मत हाथी, सिंह, दुष्ट सर्प, शुक, सारिका इन सबके मुख को सहज में बन्द किया जा सकता है / परन्तु मनुष्य के मुख को बन्द नहीं कर सकते हैं / इसलिये इस विषय में अब खेद नहीं करना चाहिये। क्योंकि कर्म का परिणाम सबसे अधिक बलवान होता है / विद्याधर, वासुदेव, चक्रवर्ती, देवेन्द्र, वीतराग कोई भी कर्म की गति से मुक्ति नहीं हो सकते / इसलिये संतोष में रहना ही उतम है, “सम्पन्न-अवस्था में हर्षित-गर्वित नहीं होना चाहिये, क्योंकि संपति भोगने से पूर्वकृत पुण्य का क्षय होता है तथा विपत्ति में विषाद भी नहीं करना चाहिये / क्योंकि उससे पूर्व के पापों का क्षय होता है / " ये सब बातें मन में विचार कर तथा धैर्य धारण करके शुकराज वहां से पत्नी सहित विमान पर आरूढ होकर आकाश मार्ग से चल दिया। ___ वह बुद्धिनिधि नामका मन्त्री प्रसन्न होकर चन्द्रशेखर के समीप आया और कहने लगाकि 'वह कपटी शुकराज मेरी युक्ति से यहां से भागकर चला गया।' ___ यह सुनकर कपटी शुकराज वेषधारी चन्द्रशेखर अत्यन्त प्रसन्न होकर तत्काल उस मन्त्री को बीस गांव पुरस्कार में दे दिये, क्योंकि ब्राह्मण भोजन से प्रसन्न होते हैं; मयूरमेघ की गर्जना से प्रसन्न होते हैं, साधु व्यक्ति दूसरों की सम्पति देखकर प्रसन्न होते हैं, दुर्जन व्यक्ति दूसरे की विपत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं / "विप्र भोजन से खुसी रह, मोर खुस धन गर्जना / .... अन्य सम्पति से सुजन खुस, विपति देकर दुर्जना // " P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust