________________ 338 . . . . . . . . . विक्रम चरित्र . इस प्रकार उस तापस की निर्लोभता देख कर महाराजा विक्रमादित्य मन ही मन उनकी प्रशंसा करने लगा. " धन्यवाद है इन निर्लोभी तापसों को जो त्यागमय . वृत्ति से अपने जीवन को सार्थक बना रहे हैं, एक सेर घी के बदले में दो सेर आ जाने से उसे वापस लौटाना, पांच रत्न जैसी अमूल्य वस्तुओं को बड़ी खुशामद से देने पर भी अपने हाथ से उसे छूना तक नहीं, यह कोई कम त्याग है. येहि सच्चे निर्लोभी, निर्मोही होने का प्रमाण है." इस प्रकार वे मन ही मन उस तापस की प्रशंसा करने लगे. . बाद में तापस के बताये स्थानानुसार महाराजा विक्रमादित्य पास ही के नाले में रत्नों को रख आये और तापस को प्रणाम कर. अपने उद्देश्य के अनुसार संसार के कौतुक देखने के लिए वहाँ से प्रस्थान किया. महाराजा विक्रमादित्य के जानेके बाद उन तापसोने लोगों से टग ठग कर काफी धन एकत्र कर लिया. उस धनसे अपने लिये देवलोक के महलों से भी अनुपम एक मठ बनवाया.. उस में वह तापस धर्म के आडम्बर में लोगों को . ठगता हुआ अपना समय बिताने लगा. ... बहुत दिनों के बाद महाराजा विक्रम अनेक देशों का भ्रमण कर पुनः उस नगरमें आया. अपने पूर्व निश्चित स्थान पर जा कर देखा तो एक नवीन विशाल सुन्दर मठ बना हुआ है. उस मठ को देख कर आश्चर्ययुक्त हो गया. उस मठ में प्रवेश करने पर उसे P.P.AC.Gunratnasuri M.S. . Jun Gun AaradhakTrust