________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 339. यह बात मालूम हुई, यह तो उसी तापसोंने अपना मठमंदिर बनाया है.' तापस को प्रणाम कर उसने अपने उन रखे हुए पांचों रत्नों की मांग की. परन्तु उत्तर में तापसने कहा, . " तुम किस से रत्न मागते हो? तुमने किसे रत्न सापे थे. तुम कौन हो ? मैं तुम्हें नहीं जानता, तुम्हारी बुद्धि बिगड गई हैं क्या ?" इस प्रकार वह तापस 'उल्टा चोर कोटवाल को डंडे.' उक्त कहावतानुसार विक्रम महाराजा से लड़ने लगा.. यह सब देख महाराजाने मनमें निश्चय किया, 'यह तो तापस ही ठग है. इस की नियत उन रत्नों को देने की नहीं है, वह उन्हें हजम ही करना चाहता है, शास्त्रकारोंने भी तो ठीक ही कहा है'कुछ भी करता नहीं किसी का, मायाशील पुरुष अपराध, तो भी हम विश्वास न करते, उस पर सर्प सदृश पलआध. माया करने वाला पुरुष किसी का कुछ भी नहीं बिगाडता है, फिर भी लोग उस पर विश्वास नहीं करले. जैसे . कि सर्प नहीं भी काटता हो तो भी लोग उस से तो डरते ही हैं ॐ क्यों कि प्रकृति का ऐसा स्वभाव है कि ठग, वञ्चक, दुर्जन और घातक जन ये सभी बहुत सावधानी से अपना पाँव उठाते है, अर्थात ये बड़े चतुर होते है. _ विचार करते महाराजा विक्रमादित्य को और भी एक * मायाशीलः पुरुषो यद्ययपि न करोति कचिदपराधमू / ... सर्प इवाविश्वास्यो भवति तथाप्यात्मदोषहतः / / स. 10/105 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust