________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित मंत्रीगण राजा को गर्व युक्त देख अप्रसन्न हो गये; और वे लोग राजा को किसी प्रकार शिक्षा मिले ऐसा उपाय सोचने लगे... __ एक दिन अवसर पाकर महाराजा विक्रमादित्य को उनके मान्य मंत्रोओंने बातचीत के प्रसंग में कहा, "हे राजन! इस संसार में अनेक मनुष्य है, जो एक एक से बडे हैं. पृथ्वी में * अनेक रत्न हैं जो एक एकसे अधिक मुल्यवान हैं. अनेक बुद्धिमान हैं जो एक एक से अधिक चतुर है. तथा कई बलवान, धनवान है, जो एक एक से बढ़ कर है; अतः किसी भी मनुष्य को अपने ऐश्वर्य-ज्ञान, बुद्धिबल आदि पर गर्व नहीं करना चाहिए, गर्व किसी का भी न रहा है और न रहेगा. इस प्रकार समझाने पर भी महाराजा पर कुछ भी असर न देख मंत्री आदि अधिकारीयोंने राजा को गर्व से मुक्त करने के लिये पुनः कोई उपाय ढूंढनेका निश्चय किया, कारण कि किसीने ठीक ही कहा है. भद्रा राजा, सर्प ये; सन्मुख से भय देत; दुश्मन, बिच्छु, बाणियो, पीछे से सब लेत. “भद्रा-तिथि, राजा और सर्प ये सब सामने से बड़े भयंकर होते हैं. परन्तु दुश्मन, बिच्छु और महाजन-वणिक लोग पीछे से नुकशान देनेवाले होते हैं. ये सामने तो * भद्गा भप भुगम ए मुहि दुहिला हूँति।। वइरी वींछी वाणिआ ऐ पूठिंई दाह दीयंति / / स. 10/199 // . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust