________________ विक्रम चरित 300 लोग फल लेने गये तो उनके हाथोंमें फलके बजाय पत्थर आने लगे, और नदीका जल लेने गये तो हाथोंमें घूल आने लगी. यह देखकर राजाने शान्तिक. क्रिया करवाई तो भी धूल और पत्थर ही मिले, राजा सोचने लगा, 'यह मैंने अच्छा नहीं किया. जो ऐन्द्रजालिकको मरवा दिया इस लिए कुछ भी हाथ न लगा.' ठीक ही कहा है, बिना विचारे सहसा कोई कार्य नहीं करना चाहिये. क्योंकि विना विचारके कार्य करनेसे आपत्तिका ही सामना करना पड़ता है. विचार कर कार्य करनेसे गुणोंको चाहने वाली सम्पत्ति खुद ही मिलती है, विना विचारके कार्य करनेवाले प्राणी दुःखी होते हैं. वह ऐन्द्रजालिक मरकर तत्काल देवयोनीमें गया और देव होकर उसने इस वाटिकाको मटिआमेट-नाश कर दिया. राजाने मंत्रियोंके साथ विचार कर नगरके चारों तरफ पटह वजवा कर कहलाया, 'जो कोई इस वाटिकाको पुनः फलयुक्त और इस नदीको जलसे पुनः प्रवाहित करेगा उसको राजा बहुत सम्मानित करेगा. साथ ही साथ अच्छा उत्सव कर, आधा राज्य उसे समर्पित करेगा. अधिकमें अपनो कन्या विश्वलोचनाकी उसके साथ सादी-विवाह करेगा." यह सब बातें सुन कर विक्रमादित्यने कहा, "हे मंत्री! तुम जाकर पटहका स्पर्श करो; बाद में सब कुछ कर दूँगा ! मुझको कुछ भी लेनेकी चाह नहीं है." जब मंत्रीने जाकर पटहका स्पर्श कर लिया, तब राजा विक्रमादित्यने अग्निवेतालकी सहायता से वाटिकाका पूर्ववत् बना दिया. क्योंकि मनुष्य से असाध्य कार्यको भो देवताको सहायता से लोग क्षणमात्र में ही साध्य कर देते हैं. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust