________________ 301 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित * महाराजाका विश्वलोचनासे विवाह-: . राजाकी आज्ञासे अग्निवेतालने उस व्यन्तर को भी दूर कर दिया और वाटिका से फल लाकर राजा को दिया. राजाने भी अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार अपना आधा राज्य उसे दे दिया. क्योंकि 'मेरु हिमालय हिल सकता है-जलधि करे मर्यादा भंग; लेकिन सज्जन नहीं बदलते-अपनी बात को किसी प्रसंग.' आलस्यमें भाकर भी सज्जन व्यक्ति जो बोलते हैं, वह पत्थर में टंक से लिखे गये अक्षरों के समान कभी भी अन्यथा नहीं होते हैं. इस लिये कुल और शील ज्ञात नहीं रहने पर भी राजाने विश्वलोचना नामक अपनी कन्या विक्रमादित्य के व्याह दी, राजाके इस कार्य पर कई लोग कहने लगे, 'कुल या शील को जाने विना ही राजाने अपनी कन्या विदेशी को दे दी यह अच्छा नहीं किया. मूर्ख भी ऐसे अज्ञात व्यक्ति को कन्या नहीं देता, तो फिर विद्वान् हो कर भी राजाने एकाएक ऐसा क्यों किया ?' . - ये सब बातें सुन कर मंत्री मतीसारने राजा रत्नसेन को कहा, " यह कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है. यह राजा विक्रमादित्य है, कि जिसने खपर और अग्निवेताल को अपने वशमें कर लिया है. यह महाराजा विक्रमादित्य का मुझको बुलाने के लिये यहाँ एकाएक ही आना हुआ हैं." इस प्रकार मंत्री की बात सुनकर राजाने नगरके कोने कोनेमें उत्सव मनाया, जौर अग्निवेतालकी सहायतासे उन सदा फलनेवाले P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust