________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग . महाराजा को यह भी निश्चय हो गया कि रक्षक और आश्रित के परस्पर स्नेह भाव होने पर ही दोनों सुखी रह सकते हैं। अगर स्वयं ही अपने दोष कोई न देखकर केवल दूसरों के दोषों को निकाले तो दोनों की आत्मा को शांति के बदले महान् दुख ही प्राप्त होता है / अतः सज्जन लोग सदा प्रथम अपने दोषों को ही स्वीकार करते हैं / जैसे, "बुराबुरा सबको कहे, बुरा न दीसे कोय / जो घट खाजा आपना, मुझ सा बुरा न कोय / / " इसके बाद राजाविक्रमादित्य न्याय मार्ग से उदार. आशय करके समस्त पृथ्वी का पालन करने लगा / अवन्ती में इस प्रकार न्याय निती से प्रजाका पालन करता हुआ राजाविक्रमादित्य दानशीलता तथा तपस्या की भावना करने लगा। ___एक दिन रात्रि में पुनः राजाविक्रमादित्य वेष बदलकर लोगों के समाचार जानने के लिये नगर में भ्रमण करने लगा / एक श्रेष्ठी के घर पर चौरासी दियों को देखकर वह अत्यन्त विस्मित हुआ। - इसी प्रकार दूसरे दिन भी रात्रिमें भ्रमण करता हुआ उसी घरमें चौरासी दीपों को देखकर पुनः आश्चर्य चकित हुआ और विचारने लगाकि 'क्या इस श्रेष्टी के घर पर चौरासी से न अधिक और न कम दीपक जलते हैं इसका क्या कारण है ! कुछ भी कारण ज्ञात नहीं हो रहा है / इस प्रकार सोचकर प्रातःकाल राज सभामें उस देश को बुलाकर लोगों के समक्ष महाराजा ने उन P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust