________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग .. इधर पक्षीने उस हार को मांस का टुकडा समझकर वनमें .. अत्यन्त दूर एक वृक्ष के कोटर में लेजाकर छोड़ दिया / फिर उद्योग उस हार को वहां से पुनः ले आया। . इस प्रकार चार पांच बार धीर को उद्योग का तो देना तथा ; पक्षी का हरण करना होता रहा / अन्त में उद्योग ने कोटि मूल्य का एक रत्न लाकर वणिक् को दिया और वणिक् ने सरोवर के / किनारे रखा तो मत्स्य उस रत्न को भी निगल गया / क्योंकि मनुष्य अदृष्ट से प्रेरित होने के कारण क्या कर सकता है ! मनुष्यों को बुद्धि प्रायः कर्म के अनुसार ही प्राप्त होती है। इसके बाद उद्योग अनेक उपाय करके भी जब कुछ नहीं / कर सका तब वह पुनः कर्म से जाकर मिला! . . "धीर को सेठ महान् बनाने को-लक्ष करोड़ का हार दिया है, कोशिश की अति उद्यमने पर-काक ने हार को ले ही लिया है; ... बाद में कर्म ने कोशिश की-फिर भी न सफलता प्राप्त हुई है, उद्यम कर्म विना न 'निरजन'-कोई कहीं पर जीव जिया है।" - ' तब कर्म ने कहाकि तुम इस धीर वणिक् को अभी तक धनवान नहीं बना सके अब मेरा प्रभाव देखो / इसके बाद कर्म ने जो कुछ भी बारम्बार स्वर्ण आदि धीर को दिये वह सब उद्योग के बिना अकस्मात् क्षण मात्र में ही नष्ट होगया / यह जानकर कर्म सोचने लगाकि मैं व्यर्थ में ही गर्व करता हूँ। क्योंकि उद्योग के बिना कुछ भी नहीं दे सकता हूँ। तब कर्म तथा उद्योग के योग से धीर अतीव धनी होगया / अन्त समय में शुभ ध्यान P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust