SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 268 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित तब प्रत्यक्ष होकर प्रसन्न समुद्र श्री अधिष्ठायक सिन्धु देव ने आदर पूर्वक श्रीधर को कहा कि राजा दूर रहने पर भी सतत मेरे समीप में ही रहता है / क्योंकि मित्र का भाव रहने के कारण दूर रहने पर भी सूर्योदय होने पर कमल, तथा चन्द्रोदय होने पर कुमुद जैसे अत्यन्त हर्ष प्रकट करते हैं। तुम ये चार श्रेष्ठ रत्न लो और मेरे मित्र राजा विक्रमादित्य को देना और इन रत्नों का यह प्रभाव कहना कि प्रथम रत्न इच्छित सम्पत्ति देने चाला है, दूसरा इच्छित भोजन के योग्य वस्तु देने वाला है, तृतीय इच्छानुसार सैन्य देने वाला है तथा चतुर्थ इच्छानुसार सब आभूषणों का देने वाला है।' . इसके बाद उन चारों रत्नों को लेकर वह ब्राह्मण पीछे लौटकर आ गया और वे चारों रत्न राजा को देकर सिंधुदेव की कही हुई उन सब रत्नों की महिमा कह सुनाई। अत्यन्त देदिप्यमान उन रत्नों को देखकर प्रसन्न होकर राजा ने उस ब्राह्मण से कहाकि 'इन रत्नों में से अपनी इच्छा के अनुसार तुम कोई एक रत्न लेलो / ' ... ब्राह्मण ने कहा कि 'मैं परिवार से पूछ कर आऊं।' घर आकर उस ब्राह्मणने अपने कुटुम्ब के आगे उन रत्नों की सारी महिमा कह सुनायी। __ तब पुत्र ने कहा कि 'सैन्य देने वाला मणि लूगा,' स्त्री ने ने कहा कि 'मैं भोज्य वस्तु देने वाला मणि लगी / ' पुत्रवधु ने कहा कि 'मैं भूषण देने वाला मणि लूगी'। ब्राह्मण ने कहा कि 'मैं द्रव्य देने वाला मणि लगा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy