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________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित दिन मैंने कर्म अधिष्टात्री विधाता-देवी से जान लिया था इसी लिये मैं इन की शादी में आने का स्वीकार किया था, और आप के पुत्र के संरक्षण के लिये मैं अपने साथ कई सैनिक आदि भी लाया था, बहुत व्यवस्था करने पर भी विधाता से लिखा लेख अन्यथा नहीं हुआ. क्या करें ?" ईस प्रकार महाराजा धनद् सेठ को धैर्य देकर समझाते थे, पर धनद् सेठ अपने प्यारे पुत्रके वियोग से अति शोकातुर हो बहुत दुःखी होता था; और पुत्र के साथ साथ मरने की अभिलाषा करता था; विक्रम राजा अपने मित्र की यह दारुण दशा देख स्वयं भी बहुत दुःखी होता हुआ अपनी तिक्ष्ण तलवार म्यान से निकाल कर दैव-विधाता के प्रति वोला, " हे दैव-कर्म अघिष्टात्री देवी! यदि धनद् सेठ का पुत्र पुनः जीवित नहीं होगा तो, मैं यहां ही अपना बलिदान करूँगा." महाराजा का इस प्रकार का साहस देख उसी समय कर्म-अधिष्टात्रीदेवी प्रगट हुई, शीघ्र ही महाराजा की तलवार पकड़ ली और बोली, "हे राजन् ! ईस श्रेष्टिपुत्र को मैं किस तरह जीवित करूँ? क्योंकि ईस श्रेष्टि पुत्रने पूर्व जन्म में केसरी सिंह को मारा था, और आज उसी सिंह के जीवने इनको मारा है; ईसमें किसीका दोष नहीं, जैसा कि विद्वानोने कहा है 'दानव देव भूप मानव हो या गंधर्व यक्ष विकराल, पाप कर्म का भोग भुगाकर सबको करता वश में काल.' P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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