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________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरअनविजय संयोजित 429 लाप किया, और देह का स्पर्श करने से जान गई, 'अरे ! यह तो वही ब्राह्मण है, फिर भी यह यहां कहां से आ गया ?' काम में अंधी होकर मृगावतीने कहा, “तुमने फिर से मुझे बहका कर यहां क्यों लाये ? अब मेरी इच्छा को पूर्ण करो." तब ब्राह्मणने कहा, “हे मृगलोचनि! तुम क्यों असत्य बोलती हो ? मैंने तुम्हारे शरीरका स्पर्श भी नहीं किया; तुम्हारे दिये हुए मोदक खाये हैं, उसका मूल्य लेना हो तो ये मेरे मुंग ले जाओ, मैं तो अपनी स्वीको छोड कर पराई स्त्री की ओर देखता भी नहीं हु. अन्य स्त्रियों को मैं अपनी मां-बहेन के समान मानता हूँ. इस लिये तुम मेरी बहन हो. मुझ से तुम्हारी बूरी इच्छा की तृप्ति न हो सकेगी, यहाँ से शीघ्र अन्यत्र चली जाओ." - यह सब सुनकर मृगावती निराश होकर जब पुनः अपने घर लौट आई, और मन ही मन इस घटना पर आश्चर्य करने लगी, पश्चात् मनमें संतोष धारण करके सो गई. - चंद्रसेन देवमंदिर में मृगावती की राह देखता ही रहा, और आखिर में वह भी वहा ही सो गया, प्रभात होते ही अपने घर गया, और नित्यकार्य में लगा. . इधर प्रभात होने पर उस ब्राह्मणने उठकर स्नानादि कर नित्यकर्म और पूजापाठ किया, बाद में वह ब्राह्मण नगर की ओर जा रहा था. उस समय चंद्रसेन कोटवाल का सामने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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