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________________ 514 विक्रम चरित्र दुष्ट आशगवाली थी आंख से किसी दूसरे पुरुष को देखती है, तो वाणी द्वारा किसी अन्य से वार्तालाप करती है, यदि किसी के साथ आलिंग करती हो तो उस समय में फिर अन्य का ही मन में ध्यान करती है. जैसे-स्त्री को छोड़ कर कहीं भी एक स्थान पर विष और अमत साथ नहीं प्राप्त होते. आसक्त होने पर सेकश रूपी अमृत से भरी होती हैं, और विरक्त होने पर वही विषमयी बन जाती है. राक्षस के समान दुष्ट आशयवाली चंद्र कि रेखा की तरह तेडी कुटिल, संध्या की समान क्षणक्षर राग रखनेवाली और नदी की तरह नीच पुरुष के प्रति जानेवाली होती है. इस प्रकार उस स्त्रो का चरित्र जान कर और चोर को -मरा हुआ जान कर, महाराजा विक्रमादित्य अपने स्थान पर आकर, इष्ट देश का स्मरण करते हुए सो गये. इयर चोर को इस तरह मरा हुआ देख कर वह चोर के पास जा कर आंसू गिराने लगी, और इस तरह बिलाप करने लगी, “हे पति ! मुझे छोडकर तुम इस समय कहाँ गये ? हे नाथ! हे प्राणाधार! हे वल्ला! हे प्रियोतम। विरहाग्नि में मुझे जलती छोडकर तुम कहा चले गये ?" थोडी देर रोने के बाद वह जब स्वस्थ हुई तब विचार करने लगी, 'मेरे दोनों पति मर गये, मेरा यह लौकिक लोकविदित पति भी मर गया, और यह लोकोत्तर-सुंदर पात भी मर गया, मेरा सती धर्म भी गया, और मेरे पल्ले केवल P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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