________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 147 जाने से, वह वहां से आकर स्नान करने के स्थान में विस्मृत हुए रत्नों को लेकर, पूर्व में खरीदी हुई वुद्धि की प्रशंसा करने लगा। रत्न मिल जाने से प्रसन्न होकर पुनः श्रेष्ठी के घर पर गया / तथा भोजन करके नगर में नाना प्रकार के कौतुकों को देखने लगा। "राहगीर को अवश्य चाहिये, छोटा सा भी साथी। . होवे क्यों न महान व्यक्ति वह, तोभी चहिये साथी / देख लीजिये नेवले ने भी, श्री भीम का उपकार किया। प्राण बचा तब उस दिन से वह, मिलकर जाना मान लिया / / " इसकबाद एकाकी नहीं जाना इस तृतीय बुद्धि का स्मरण करके, किसी साथी को प्राप्त करने के लिये भीम ने तलाश की किन्तु कोई. साथी न मिला, तो आजु-बाजु तलाश करनेपर एक नेवला नौलिया) दिखाई दिया / उसे पकड़ कर अपने साथ ले लिया। कारण कि प्रथम और दूसरी बुद्धि के फल स्वरूप ही चार रत्न सरोवर के कोण में मिल गये तो उस धीधन श्रेष्ठी की बुद्धि पर उसे अति विश्वास उत्पन्न हो गया। प्रत्यक्ष फल्न मिलने पर नास्तिक को भी आस्था उत्पन्न हो जाती है। . . उस नेवले को लेकर भीम कई गाँव-नगर आदि देखता हुआ, ग्रिष्म ऋतु होने के कारण, मध्याहन समय में वन में किसी स्थान पर खेलते हुए नकुल को छोड़कर स्वयं एक वृक्ष की छाया में सो गया / इधर एक सर्प वक्ष के कोटर से निकला और जैसे ही वह Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.