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________________ তত साहित्यप्रेमी मुनि निरजनविजय संयोजित mmmmmm~~~~ इसकी प्रकार जीव अपने पूर्व जन्म में किये हुये कर्मों के वश से अनेक प्रकार के सुख और दुःख को प्राप्त करते हैं। क्षण में अनुरक्त, क्षण में विरक्त, क्षण में क्रोध, क्षण में शान्ति, इस प्रकार मोह में आकर वानर के समान मुझ से चपलता हो गई। फिर गुरुसे कहने लगाकि 'हे स्वामिन् / मुझ पर अब प्रसन्न होकर इस अपार संसार रुपी विषम समुद्र से पार होने के लिये कोई उपाय दिखाइये, क्योंकि सज्जन व्यक्ति अपने कार्यों से विमुख होकर परोपकार करने में लीन रहते हैं / जैसे चन्द्रमा अपने कलंक को छोड़कर पृथ्वी को प्रकाशित करने में आसक्त रहता है।' "इस भव समुद्र को तैरने में, है धर्म नाव के तुल्य बना। उस नाव खेवने में मानों चारित्रय बांस है सदा बना॥" तब गुरु उपदेश देने लगे कि संसार रूपी समुद्र में पार होने के लिये धर्म ही नौका के समान है / तथा चारित्र के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। ___श्री दत्त ने प नः पूछा कि "हे भगवन् ! यह मेरी कन्या; मैं किसको दू?' तब मुनीश्वर ने कहा कि 'शंखदत्त को क्यों नहीं दे देते हो ?' तब श्रीदत्त नेत्र से अश्रु गिराता हुआ गद्गद् स्वर से कहने लगा कि उसको मैंने समुद्र में गिरा दिया है / अब उस मित्र से मिलन किस प्रकार हो सकता है ? . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S! Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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