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________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग भ्रमण करके तथा अनेक कष्टों को प्राप्त करके मैत्र का जीव 'शंखदत्त' नाम से तुम्हारा मित्र हुआ है। _उधर चैत्र की दोनों स्त्री गंगा और गौरी चिरकाल तक अपने स्वामी की आने की राह देखकर अन्त में निराश होकर समार से विरक्त हो गयी। वे दोनों स्त्रियां मासोपवासादि अनेक तप करती हुई एक दिन गंगा - तट पर एक परमसुन्दरी वैश्या को देखकर विचारने लगी कि इस वैश्या को धन्य है क्योंकि प्रतिदिन अपने अभिलषित पुरुष को सेवन करती है / परन्तु हम दोनों को धिक्कार है जो स्वामी का कहीं से किसी भी प्रकार का समाचार नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार दुःख चिन्तन करती हुई, अपने उपवासादि पुण्य कर्म का ध्यान छोड़कर, शरीर त्याग करके ज्योतिष्क देवी के स्थान में देवीपद को प्राप्त हो गयी। १इसके बाद वहां से च्युत होकर वे दोनों गंगा और गौरी श्रेष्ट स्वभाव वाली तुम्हारी दोनों स्त्रियां पूर्व जन्म के अनुराग के कारण सुन्दर रुप वाली तुम्हारी माता और कन्या हुई / "हे श्री दत्त ! पूर्व जन्म के बैर के कारण तुमने शंखदत्त को समुद्र में अत्यन्त कोध से गिरा दिया / यही सब तुम्हारा कुकर्म है।" गुरु मुख से इस प्रकार अपने पूर्व जन्म का वृतान्त जानकर श्रीदत्त के मन में वैराग उत्पन्न हो गया। तथा सोचने लगा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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