________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित अपने आत्मा की अत्यन्त निन्दा करते हुए दया युक्त हृदय होकर वापस अपने स्थान पर जाकर बैठ गया। सच है 'उत्तम व्यक्तियों का चित्त कुमार्ग में जाते हुए भी स्वयं उससे विरक्त हो जाता है, . परंतु दुष्ट हृदय वाले पापी मनुष्यों का चित्त अनेक उपदेश देने पर भी कुमार्ग से निवत नहीं हो सकता है। - इसके बाद वे दोनों मित्र अनेक देशों में भ्रमण करके तथा बहुत सा धन उपार्जन करके मार्ग में आते हुए नदी के प्रखर / प्रवाह में अचानक पड़ कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। कहा है-- | "मनुष्य जलमें मग्न हो जाय, मेरु पर्वत के शिखर पर चढे, युद्ध में शत्रुओं को जीते, व्यापार कृषि कम आदि कला तथा विद्या की शिक्षा ले, पक्षी के समान बहुत प्रयत्न करके अनन्त आकाश में उड़ जाय, परन्तु जो भावी नहीं है वह नहीं हो सकता तथा भाग्यवश जो भावी है, उसका नाश भी किसी प्रकार से नहीं हो सकता"* पश्चात् तिर्यग्योनि आदि में तृष्णा बुभुक्षा, आदि अनेक कष्टों को प्राप्त करके चैत्र का जीव तुम 'श्रीदत्त' नाम से इस समय हुए हो। और अनेक योनियों में * मज्जत्वम्भसि यातु मेरुशिखरं शत्रु जयत्वाहवे / * वाणिज्यं कृषिसेवानादि सकला विद्याकलाः शिक्षतु / / - आकाशं विपुलं प्रयातु खगवत् कृत्वा प्रयत्नं परम् / ना भाव्यं भवतीह कर्मवशतो भाव्यस्य नाशः कुतः ॥४५८||स०८ i P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust