________________ विक्रम चरित्र थी, ग्यारवां रत्नके प्रभाव से भूत प्रेतादि छल नहि कर सकते और वश में रखता, बारहवें रत्न के होने पर सांप नहीं काटता था, तेरहवें रत्न शिबिर-सेना तैयार कर देता था, चौदहवें रत्न से सुखपूर्वक आकाशगमन हो सकता था. महाराजा इन चौदह रत्नों को ले कर अपने नगर के प्रति रवाना हुए और रास्ते में हर्ष पूर्वक याचकों को वे रत्न दे दिये. विक्रम महाराजा स्वोपार्जित धन को सात क्षेत्रों में व्यय कर अपने जन्म को सफल कर रहे थे. उस समय उस के पास शतमति, सहस्त्रमति, लक्षमति तथा काटिमति नामक चार अंगरक्षक थे, वे चारों बडे शुरवीर व स्वामिभक्त थे. , रात्रि में सोये हुए महाराजा की रक्षा के लिये एक एक प्रहर में वे चारों बारी बारी पहरा देते थे, क्यों कि 'हीन बुद्धिवाला सेवक आगे जाता है, खुशामदखोर रात में जागता है लेकिन शुरवीर सेवक हाथ में तलवार ले कर दरवाजे पर खडा रहता-रक्षा करता है, अर्थात् सावघानी से पहरा देता है.' एकदा महाराजा विक्रमादित्य शय्या में सो रहे थे, इतने में उन्होने नगर के बाहर-दूर से किसी स्त्री के करुण राने की आवाज सुनी, तब उन्होंने अंगरक्षक-शतमति से कहा, "हे शतमति, तुम नगर के बाहर जाओ, और राती हुई स्त्रा को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust