________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 335 प्राप्त करने के लिये नगर में भ्रमण करते हुए किसी शाहुकार की दुकान पर महाराजा जा पहूँचे. उनके पहुंचने के साथ ही उसी दूकान पर एक तापस भी आया और उसने दूकानदार से 'एक' सेर घी की याचना की. तापस की याचना को सुनकर सेठने उस तापस को एक सेर घी के बजाय 'दो' सेर घी दे दिया. ... .. ____तापस वह घी लेकर सीधा अपने गुरु के पास गया, और उन्हें वह घी अर्पण किया. घी को अधिक देख गुरुने उस चेले को पूछा, " यह घी तो एक सेर से अधिक दीखता है.” उत्तर में चेले ने कहा, "यह तो दो सेर थी है." पुनः तापस के गुरुने शिष्य को रुखे स्वर से कहा, "तुम यह अधिक घी क्यों लाया ? चोरी रुपी पाप वृक्ष का फल इस संसार में वध-फासी और वन्ध-काराबास आदि की प्राप्ति और परभव में नरक की प्राप्ति अर्थात् वहाँ पर नारकीय वेदनाओं को सहन करना पड़ता है.x तुम शीघ्र जाकर इस अधिक घी को वापस दे आ." ...' अपने गुरु की आज्ञा पाकर वह चेता घी लेकर उसी सेठ की दूकान पर आया. और उसे अपना अथिक घी को ... वापस लेने का आग्रह किया.. .. . इस प्रकार तापस द्वारा अधिक घी के लोटानेकी क्रिया ___x" चौपापद्रुमस्येह वधबन्धादिकं फलम् / .... जायते परलोके तु फलं नरकवेदना" // स. 10/86 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust