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________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित mmmmmhmm. मनुष्य आदि ये सब वस्तु शोभा को प्राप्त नहीं कर सकते। इधर राजा, घोड़े के वेग से चलने के कारण शुक के पीछे पीछे एक सौ योजन मार्ग को पार कर एक विशाल जंगल में उपस्थित हु।। उस जंगल में सुवर्णदंड, विशाल कुम्भ तथा फहराती हुई पताकाओं से युक्त एक देव प्रासाद को देखा / इतने में वह शुक उसी देव प्रासाद के शिखर पर बैठ कर कहने लगा कि, "हे राजन ! जिनेश्वर श्री आदिनाथ को प्रणाम करके अपने जन्म को पवित्र कर / " राजा ने सोचा कि शुक कहीं न चला जाय, इस भय से घोड़े पर बैठे हुए ही जिनेश्वर को नतमस्तक होकर प्रणाम किया। ग़जा के मन की शंका हटाने के लिए वह शुक उसी देव प्रासाद में आ गया और जिनेश्वर देव को प्रणाम कर हर्ष पूर्वक स्तुति करने लगा किः "हे अदिनाथ ! जगन्नाथ ! विमलाचल को सुशोभित करने वाले तथा नाभी कुल रूपी आकाश में प्रकाश करने में सूर्य तुल्य ! आपकी जय हो (1) / ... आपकी मूर्ति तीनों भुवनों की कठिन पीड़ाओं को नाश करने वाली है। मनुष्यों को आनन्दित करने वाली, अमृत की वर्षा करने वाली, अभिलाषित वस्तु को देने में कल्प वृक्ष स्वरुप तथा (:) आदिनाथ जगन्नाथ, विमला चल मण्डन / जय नाभि कुलाकाश, प्रकाशन दिवाकर // 7 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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