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________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 443 पकड़ कर लाएंगे, तुम उस से खेला करना, थोडी देर शान्त रहो.” उसी समय द्वार पर अग्निवैताल आया और पशुओं , में श्रेष्ठ घोड़ी तथा मनुष्य को आवाज सुनकर आनंद-मग्न हो गया. " आज मेरा भोजन अपने आप यहां आ पहूँचा है, आज आनंद से भोजन मिलेगा.” अग्निकने अपने गण, भूत, प्रेतादिकों से कहा, "इन प्राणियों के पास चला." घोड़ी के मुख में लोह की लगाम लगी थी, घोड़ी को देख कर अग्निवैताल डर गया वह घोड़ी के पीछे गया. ज्योंही अग्निक घोड़ी के पीछे जाकर खडा हुआ कि घोडीने एकाएक लात मार दी, और अग्निवैताल उस आघात से गिर पड़ा. शीघ्र ही सावधानी से उठ खडा हुआ. उठने के बाद अग्निवैतालने अंदर से पालना झुलाते हुए गाने की आवाज सुनी, और वह डर गया. उस को डरा हुआ देख कर पद्माने कहा, " तुम मत डरो, चिरंजीवी रहो, तुम हूँ.” प्रत्युत्तर में कहा, "सुनो मै भेषसी हूं और मेरा भक्ष्य राक्षस है. . सुदर मुहूर्त में मैने इस पुत्र को जन्म दिया है, पिताने इस का नाम मुकुन्द रक्खा है. एक ज्योतिषीने इस बालक के ग्रह नक्षत्रादि को देखकर कहा है, 'एक अग्निक P.P.AC. Gunratnasuri M.S.
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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