________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग 165 "विश्वासी जन को ठगने में है न बहुत कुछ चालाकी / गोदी में सोये वानर को-मार दिखाना नालाकी // " __ "विश्वास किये हुए व्यक्ति को ठगने में क्या चतुरता ? गोद में आरूढ होकर सोये हुए बंदर को मारने में क्या पुरुषार्थ ? यह सुनकर वह राजकुमार प्रथम अक्षर को छोड़कर 'सेमिरा' ये तीन अक्षर ही बोलने लगा। / तब कन्या वेषधारी गुरु पुनः दूसरा श्लोक बोलने लगाकिः- सेतु'गत्वा समुद्रस्य गंगासागर संगमें - ब्रह्महा मुच्यते पापै मित्रदोही न मुच्यते // 1281 / / 8 / / "समुद्र के पुलपर जाकर तथा गंगा और सागर के संगम पर जाकर ब्रह्महत्या करने वाला पापसे मुक्त हो सकता है, परन्तु मित्र द्रोही मुक्त नहीं हो सकता। इसके बाद राजकुमार 'मिरा' ये दो अक्षर बोलने लगा। कन्या रूपधारी गुरू पुनः तीसरा श्लोक बोलेः मित्रद्रोही कृतघ्नश्च स्तेयी विश्वास घातकः / चत्वारो नरकंयान्ति यावच्चन्द्र दिवाकरौ // 1282 / / 8 / / "मित्र का द्रोह करने वाला, कृतघ्न, चोरी करने वाला, तथा विश्वासघाती ये चार जव तक इस संसार में चन्द्र और सूर्य हैं तब तक नरक में ही बास करते हैं / " __ यह सुनकर पुनः राजकुमार 'रा' यह केवल एक ही अक्षर बोलने लगा तब गुरू ने पुनः चौथा श्लोक कहाकिः "चाह सही कल्याणों की है तो राजन् ! कुछ दान करो। . देकर दान सुपात्र जनों में-धर्म गृहस्थी किया करो।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust