________________ . 166 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित हे राजन् ! यदि तुम राजकुमार का कल्याण चाहते हो तो सुपात्रों को दान दो / क्योकि गृहस्थ दान से ही शुद्ध होता है / * _ मन्त्री कन्या के मुख से चारों श्लोक सुनकर विजयपालक राजकुमार बिलकुल स्वस्थ हो गया और राजकुमार के मुख से जंगल में बना हुआ सारा ही वृतान्त राजा एवं प्रजाजन ने सुना तब सब लोग आश्चर्य चकित हुए, तथा विद्वान मन्त्री कन्या की भूरी 2 प्रशसा करने लगे अवसर प्राप्त कर राजाने कहा कि 'हे बालिके ! तुम तो गांव में ही रहती हो तो भी तुम वनके बानर, बाघ तथा मनुष्यों के वे सब चरित्र कैसे जानती हो ?' तब उस कन्या वेषधारी गुरू ने कहा कि 'हे राजन् ! देवता तथा गुरू की कृपा से सरस्वती मेरी जिहवा पर है / इसीलिये मैंने तुम्हारी रानी भानुमती के जांघ के तिलको जाना था उसी प्रकार सब कुछ जानती हूँ।' ___ इस प्रकार कन्या वेषधारी शारदानन्दन गुरू के द्वारा एक-एक श्लोक कहने पर क्रमशः एक-एक अक्षर को छोड़ कर वह राजकुमार स्वस्थ हो गया। तथा राजा अत्यंत आश्चर्य करने लगा। पश्चात् उठकर राजा ने पदे को हटाकर देखा तो उन्हें कन्या रूप धारी शारदानन्दगुरु ही दिखाई दिये / इन्हें देख कर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ, और मन्त्री तथा गुरू को बहुत सा धन देकर प्रसन्न किया। * राजंस्त्वं राजपुत्रस्य यदि कल्याणमिच्छसि / देहिदानं सुपात्रेभ्यो गृही दानेन शुद्धयति // 1283 / / 8 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust