________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 499. aaunee - के साथ अपनी पुत्री का जन्मोत्सव किया. सभी स्वजन लोगो का वस्त्रालंकार आदि से सन्मान किया और उस पुत्री का नाम रत्नमंजरी रक्खा. क्रमशः जब वह पूर्ण युवावस्था को प्राप्त हुई तब सुंदर नारी के समान रूपवती दिखने लगी. सुंदर लक्षणों से शोभायमान, हमेशां सभी दोषो से दूर, खूब लावण्यवाली, हाथी.के समान चालवाली और चौसठ कलाओं से पूर्ण वह रत्नम जरी इतनी सुंदर दिखती थी कि सभी स्त्रियों को रूप और सौन्दर्य में उसने हरा दिया था. अपनी सुदरता से वह साक्षात् कामदेव की पत्नी रति के समान मालुम पडती थी. पूर्ण युवावस्था के प्राप्त होने पर भी उसके शरीर में काम विकार पैदा नहीं हुए थे, उसे विवाह की जरा भी इच्छा नहीं थी. उसे और वह देव गुरु की पूजा आदि धर्मक्रिया हमेशा करती थी, अर्थात् वह परम धार्मिक थी. - पुरुष जाति से उस को कोई द्वेष नहीं था, केवल धर्म क्रिया में उसके दिन व्यतित होने लगे. उस की माताने एक दिन अपनी गोद में बिठाकर उसको पूछा, “हे पुत्रि! तुझे कैसा वर पसंद है ? अर्थात्-तू किस के साथ शादी करना चाहती है ? " तब लज्जित होती हुई वह बोली, " देव, दानव, राजा, किन्नर, सेठ, कुबेर मुझे कोई भी वर पसंद नहीं है." उसके माता-पिताने बहुतसे प्रयत्न किये, किंतु उसने शादी करना मंजूर नहीं किया. वह वणिकसुता :जगत को मोहित करनेवाली सुंदर अवयववान, शुक्ल पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हुई थी. यौवनमद से उन्मत्तः तारुण्य वृक्ष की मंजरी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust