________________ मानवता===== प्रगति बताकर जिस समाजमें होता मर्यादा का लघन ! // भीतर घोर विपमता है, पर समताका ही बाह्य-प्रदर्शन ! | हा ! अनुशासहीन जहाँ हैं. पद-लोलुप जनता का शासन ! सुधरेगा समाज वह कैसे ? व्यक्ति व्यक्तिका कलुषित जीवन ! आह ! अराजकता है छायी, कैसे मिट सकती बर्बरता ! हटा ! हटा ! इस महालय में घुसी जा रही है दानवता ! क्षण-भंगुर धन-जनके मदमें मनुज अरे क्यो अकड़ रहा तू ? तुच्छ २स्वत्वके लिये परस्पर कुत्तों-सा क्यों झगड़ रहा तू ? आह ! मोह-वश क्यों पापांसे निज जीवनको जकड़ रहा तू ? क्यों न छोड़कर अधम प्रेयको, परम श्रेयको पकड़ रहा तू ? मृग-तृष्णामें प्यास बुझी कब ? बढ़ती नित गई विकलता ' रोक ! रोक ! तेरे जीते जी, कहीं मर न जाये मानवता ! | ( रचयिता : श्री. भवदेवजी झा. एम. ए. शास्त्री हिन्दी कल्याण के मानवता-अकसे-साभार उध्धन) 1. असभ्यता. 2. अधिकारके लिये. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust