________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 289 सिंहका शब्द सुनकर अन्य वनके पशु जान गये. सियाल भी बारंबार यह पढ़ने लगा, 'अनागतकी चिन्ता करनेवाला कदापि दःखी नहीं होता.' वनमें रहते रहते मैं वृद्ध हो गया; परन्तु गुहाकी वाणी तो कभी नहीं सुनी.” इस प्रकार सोचकर वह सियाल बुद्धि के प्रयोगद्वारा मृत्युसे बच गया. " .. मतीसार-मंत्रीश्वरकी पुत्रवधूने मनमें निश्चय किया कि 'मैं भी वैसाही उपाय करुंगी.' यह सोचकर एकएक रत्नको प्रत्येक कण्डेमें-छाणामें रखकर थापने लगी. परिवारके लोगोंके निषेध करने पर भी जब उसने अपने कार्यक्रमका त्याग नहीं किया; तो लोग उसकी हँसी उड़ाने लगे. वे लोग कहने लगे, 'वाह ! यह कुलबघू अपने कुलका उद्धार करेगी ?' लोगोंका इस प्रकार . व्यंग सुनकर भी वह मंत्रीकी पुत्रवधू अपना कार्य नहीं छोड़ती थी. क्योंकि 'सर्वथा अपने हितका आचरण करना चाहिये; लोक बहुत बोलकर क्या करेंगे? ऐसा कोई भी कार्य नहीं है. जिसमें सब लोग . संतुष्ट ही रहे !'+ वह मनमें सोचती थी, " यदि मैं किसीके आगे अपने मनकी बात कहूँगी तो भी कोई मानेगे नही, अरे और की क्या बात करे ! मेरे श्वसुर और सासु भी यह बात मानेंगे ही नही, दुनीया दुरंगी है." वैसा सोचकर किसी भी बात का विचार न करके अपना कार्य बराबर करती रही, इस प्रकार उस मंत्रीको पुत्रवधूने . दूसरोंकी बातोंका अनादर करके उसने अनेक रत्न कण्डोमें थाप दिये. + "सर्वथा स्त्रहितमाचरणीयं किं करिष्यति जनो बहुजल्पः / विद्यते स नहि कश्चिदुपायः सर्वलोक परितोषकरो यः ॥सर्ग 9/44 9 // . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust