________________ 74 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग परदेश की मुसाफरी का कष्ट वे सहन नहीं कर सकते हैं।" जो घर से निकल कर अनेक आश्चर्य से भरी हुई इस समस्त पृथ्वी को नहीं देखते हैं, वे मनुष्य कूप के मेढ़क के समान संकुचित भाव वाले होते हैं। इस प्रकार विचार करके वे दोनों मित्र मैत्र' और चैत्र' द्रव्योपार्जन के लिये 'कोकाण' देश में पहुंचे। वहां पहुँच कर क्रमशः बहुत सम्पत्ति का उपार्जन किया प्रचुर द्रव्य उपार्जन करने के बाद एक दिन मार्ग में अत्यन्त लोभ के वशीभूत होकर सोये हुए चैत्र को मारने के लिये मैत्र उठा / धन कैसी बुरी चीज है जो अपने प्यारे मित्र को मारने के लिये तैयार हो गया। पर उसी समय भाग्योदय से उसमें विवेक गुण प्रगट हुआ और वह विचारने लगा कि मेरे जैसे विश्वासघातीको नरकमें भी स्थान न मिलेगा / पाप करने वाले प्राणी अत्यन्त घोर नरक में जाते हैं। क्योंकि लोभ पाप का मूल है, स्वाद व्याधि का मूल है तथा, स्नेह दुःख का मूल है / इन तीनों के त्यागने से ही सच्चा सुख मिलता है। - पृथ्वी कहती है कि "मुझको पवतों का भार नहीं है, तथा सात समुद्रों का भी भार नहीं है परन्तु कृतघ्न और विश्वासघाती ये दोनों मुझको बहुत बड़े भार स्वरूप हैं" और भी कहा है कि कूट साक्षी (मिथ्यासाक्षी देने वाला), मिथ्या बोलने वाला, कृतघ्न चिरकाल तक क्रोध रखने वाला, ये चार कर्म से चण्डाल हैं और पांचवा जाति से चण्डाल होता है। ये सब बातें सोच कर मैत्र Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.