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________________ विक्रम-चरित्र द्वितिय भाग . 161 भोगने योग्य दुष्कर्म भी नष्ट हो जाते हैं / प्रत्येक मनुष्यको अपना शरीर तीर्थ यात्रासे, चित्त को धर्म ध्यान से, धन को सुपात्र को दान देने से और कुल को सदाचार पालन कर सुशोभित एवं पवित्र करना चाहिये / अरिमर्दन राजा को इतने धर्मीष्ट समझ कर, राजा रत्नकेत ने : कहाकि 'आप प्रसन्न होकर मेरे घर में भोजन करें। रिमदन राजा का नारी-दुष इस पर राजा अरिमर्दनने कहा 'मैं नगर के मध्यमें कदापि नहीं जाऊंगा / क्योंकि यदि मेरे सामने कोई स्त्री आगई तो मैं स्वयं प्राण त्याग दूगा / इसलिये आप मुझको भोजन के लिये आग्रह न करें।' ___ राजा रत्नकेतु ने पुनः कहाकि 'मैं सब स्त्रियों को अपने घर में बन्द कर दूंगा और मेरी स्त्री भी मेरे कहने से गुप्त ही रहेगी।' इस प्रकार आग्रह देखकर अरिमर्दन को बात माननी पड़ी। इस प्रकार जब अरिमर्दनने बात मानली तब राजा रत्नकेतु अपने नगरमें आया और तत्काल नगर में अपने कथनानुसार व्यवस्था करदी / नगरको सुसज्जित करके और राजसी भोजन बनवाकर राजा रत्नकेतु अरिमर्दन को अपने घर लाया तथा पुरुष : से द्वष करने वाली राज कन्या के गृह के समीप में बने हुए "भोजन मण्डल में, पंखा आदि ढ़ाल कर अरिमर्दन राजा का अत्यन्त सन्मान किया। क्योंकि: P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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