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________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 403 दरवाजा खोलने को कहा, किन्तु द्वारपालने उस दिन दरवाजा नहीं खोला, तब रुक्मिणी को पुनः अन्दर लौट जाना पढ़ा. दूसरे दिन मैं (गगनधूली) फिरसे भिक्षा लेने गया, भिक्षा देते समय रुक्मिणीने पूछा, 'हे भिक्षुक ! तुम कौन हो ? और कहां से आये हो ?' मैंने कहा, 'कर्मयोग से मैं दरिद्र हो गया हूँ, किन्तु वणिक जाति में मेरा जन्म हुआ हैं.' कम्पित स्वर से यह उत्तर दे मैं स्थिर और स्तब्ध रहा तब फिरसे उसने मुझे कहा, 'यदि तुम मेरा कहना मानो और किसी से यह बात नहीं कहोगें, ऐसी प्रतिज्ञा करो तो मैं तुम को अपने पिता के घर में नौकर रखवा सकती हूँ, और अच्छे अन्नादि से तेरे को सुखी करूँगी. प्रतिज्ञा यह है कि, प्रतिदिन मध्यरात्रि के समय तुम्हे मेरे कहने पर द्वार खोलना पड़ेगा.' मैंने यह बात स्वीकार लिया. अपने पिता से कह कर रुक्मिणीने द्वारपाल की जगह मुझे दिलवा दी और मैं द्वार पर रहने लगा. उसी दिन ठीक मध्यरात्रि में हाथ में मोदक से भरा हुआ थाल लेकर दरवाजे पर रुक्मिणी आयी और मुझे एक मोदक देकर द्वार खोलने के लिये कहा, मैंने शीघ्र दरवाजा खोल दिया, रुक्मिणी आगे बढी, मैं भी उसका चरित्र देखने के लिये उसके पीछे पीछे चला. चलते चलते रुक्मिणी सराफा बाजार में आकर रुक गई, मैं भी चुपके से वृक्षके आड में एक स्थान पर खड़ा रह गया, 'आगे का कृत्य देखने के लिये आतुर हो रहा था. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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