________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 293 - उन लोगोंको गये जानकर वह सोचने लगी, ' श्वसुर आदिके बिना हम कैसे अपना समय बितायेंगे ? धन देने पर भी ये लोग हमसे दूर चले गये. आपत्ति आने पर प्राणीका कोई मी आत्मीय नहीं होता. अथवा इन लोगोंका कोई दोष नहीं है. यह तो अपने पूर्व जन्मके किये गये कर्मों का ही दोष है. तो भी जब तक यह दुर्भाग्य दूर न हो जाय, तब तक वेष बदलकर गुप्त रहना ही अच्छा है. क्यों कि बिना पतिके स्त्रियोंका शील रक्षण अत्यन्त दुष्कर है.' यह सब मनमें सोचकर वह छोटी पुत्रवधूने अपने पतिके बड़े भाईयोंकी स्त्रियोंके साथ रात्रिमें दूसरे नगरको जानेके लिये प्रस्थान किया. और दूसरे नगरमें जाकर शील रक्षाके लिये उसने पुरुष वेषको धारण कर तथा एक रत्न बेचकर एक वृद्ध स्त्रीके घरमें वे सब रहने लगी, उस वृद्धाके द्वारा अन्न आदि सामग्री मंगवाती थी: / प्रतिदिन भोजन करके पुरुष वेषवाली वह पुत्रवधू झरोखेके पांस बैठती थी. एक दिन झरोखेमें बैठे हुए उसने अपने श्वसुरको थोडे दूरमें रोते हुए देखा और वृद्धासे कहा, "वह रोते हुए मनुष्यको यहाँ ले आओ." मतीसारका कुटुम्बसे पुनः मिलन... वृद्धाने उसके पास जाकर कहा, "उस झरोखे में बैठा हुआ एक कुमार तुम्हे बुला रहा हैं." इस प्रकार कहकर लकड़ीके भारेको उठाये हुए उस वृद्ध मनुष्यको वह बुढ़िया अपने घरमें ले आई. इसके बाद उस कुमार-वेषधारी पुत्रवधूने कहा, " तुम क्यों इतना P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust