________________ 140 साहित्यप्रेमी मुनि निरजनविजय संयोजित लक्ष्मीधर पीछे लौट कर और अन्योक्ति से उन लोगों को कहने लगा कि: "विपतिमान को क्यों हंसते हो-रे धन मद से मूढ़ कुलोक, लक्ष्मी नहीं स्थिर है जगमें-यह देती है सबको शोक; हँसना नहीं किसी को चहिये-देख देख अरहठ के गर, छन में भरता छन में खाली-कभी नहीं करना अन्धेर / " "हे धन के मद से अन्धमूढ़ ! आपत्ति में पडे हुए को देखकर क्या हंसते हो ? लक्ष्मी कभी भी कही स्थिर रही है ? अरठ (जलयन्त्र) के चक्र में नहीं देखते हो ?' कि सब धेड़े बार बार पानी भरती खाली करती हैं।"; श्रेष्ठी पुत्र की इस प्रकार की वाणी '. सुनकर वह वणिक् पुत्र गर्व छोड़कर अपने निर्धन मित्र को वस्त्र और आभूषण देकर सम्मानित करके क्षमा माँगने लगा। तथा उसे पूर्ण धन देकर उस श्रोष्ठि पुत्र को अपने समान धनवान बना दिया / इसलिये कहा है कि सज्जन व्यक्ति अत्यन्त कुपित होने पर भी संयोग प्राप्त करके सरल हो जाते हैं, परन्तु नीच व्यक्ति नहीं ! जैसे अत्यन्त कठिन सुवर्ण के द्रवित करने का उपाय तो है, परन्तु तृणको द्रवित करने का कोई भी उपाय नहीं है।' "आपद्गतं हससि किं द्रविणान्धमढ़, .. ... .लक्ष्मीः स्थिरा भवति नैव कदापि कस्य / ... यत्किं न पश्यसि घटीनलयन्त्रचक्र, ..... रिक्ताभवन्ति भरिताः पुनरेव रिक्ताः // 645' P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust