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________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 481 --...--- मत्स्यका एकाएक हास्य एकाएक रानी के इस प्रकार कहने पर वह मत्स्य हँसने लगा. उसे हंसते हुए देख राजाने विस्मित होकर रानी से पूछा, 'तुम्हारे ऐसा कहने पर यह निर्जीव मत्स्य क्यों हँसा?" रानीने कहा, 'हे स्वामी ! मैं इस के हँसने का कारण नहीं जानती.' तदनन्तर उस राजाने राजसभा में जाकर सब मंत्रिगण को रानिवास का वृत्तान्त सुनाते हुए मत्स्यहास्य का कारण पूछा, तब मंत्री लोग हाथ जोडकर बोले, 'अपने प्रियजन और विशेष कर अपनी बीयों की चेष्टाओं और उसके कृत्य के बारे में अन्य किसी व्यक्ति से नहीं पूछना चाहिये. कहा भी है, कि धनका नाश, मनका संताप, घरका दुश्चरित्र अथवा पत्नी आदि का दुराचरण, कोई दूसरों से ठगा जाना तथा अपमानित होना आदि बाते बुद्धिमान् व्यक्ति को किसी से नहीं कहना चाहिये. हम लोगों से तो राज्य अथवा अपने द्वेषी राजाओ को जितने आदि सम्बन्धो की बाते ही पूछिये.' उस राजा को जब मत्रियों से जवाब नहीं मिला, मनका संतोष नहीं हुआ और उसने अपने राजपुरोहित को बुलवाया और उसे मत्स्यहास्य का कारण पूछा, तब पुरोहितने कहा, 'हे राजन् ! मैं मत्स्यहास्य का कारण नहीं जानता हूँ.' राजा बोला, 'क्या तुम वृथा ही राज्य के ओरसे तनखा -वेतन खाते हो ? जवाब क्यों नहीं दे सकते ? हे पुरोहित ! P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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