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________________ .. विक्रम चरित्र द्वितीय भाग स्पस्ट रूप में इसप्रकार कहने लगा कि-'इसको मैंने जीवनदान दिया है, अतः इस कन्या को मैं ही ग्रहण करूगा।' तब श्रीदत्त ने कहा कि हे मित्र ! इस प्रकार तुमको बोलना नहीं चाहिये, क्योंकि तुम्हारा यह विचार अनुचित है, कारण कि पहले ही अपने दोनों ने इस प्रकार निश्चय कर लिया है कि दोनों मित्र आधा आधा लेंगे। इसलिये तुम कुछ धन लेकर यह कन्या सुमे दे दो। .. तब कोध से रक्त नेत्र करके शंखदत्त कहने लगा कि-हे मूर्ख दुष्ट ! पापिष्ट ! हे निर्दयी श्रीदत्त ! जब तक मैं जीता हूँ तब तक तुम इस कन्याको किसी प्रकार ग्रहण नहीं कर सकते हो। ठीक ही कहा है-"सिद्धि और स्वर्ग की अर्गला (कपाट) रुप कन्या का निर्माण किसने किया। जिसके लिये मोहित होकर के देव तथा मनुष्य सब कोई. दिङमुढ हो जाते हैं"' / सुन्दर नेत्र वाली कन्या बलवान मनुष्य के मन को भी प्रेम पूर्वक अपने वश में कर लेती है। जिस तरह मच्छीमार मच्छी को पकड़ लेता है और जैसे मद्यपान करने से उन्मत्त होकर लोग अपना हित अथवा अहित नहीं समझते हैं, उसी प्रकार स्त्रियों से मोहित होकर मनुष्य विवेक हीन होजाते हैं। अपार समुद्रका पार पा सकते हैं, परन्तु स्वभावतः कुटिल स्त्रियों का तथा. दुराचारी व्यक्तियों म. "हा नारी निर्मिता केन सिद्घ स्वर्गऽगला खलु। .... यत्र स्खल ति हा मूढाः सुरा अपि नरा अपि" ॥३३०॥सग 8 P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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