________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 407 सज्जित होकर कौशाम्बीनगरी में अपने ससुराल गया, वहां पर पहले की बजाय मेरा अच्छा आदर-सन्मान किया गया, किन्तु मैंने अपनी स्त्री की परीक्षा के लिये नहीं बुलाया और न उस की ओर देखा मेरा यह बरताव देख वह-रुक्मिणी मन , ही मन दुःखी हुई. . भोजनादि कर जब मैं रात्रि को सेो रहा था, तब मेरी स्त्री-रुक्मिणी आई, और धीरे धीरे मेरे पाँव को दबाने लगी, थोड़ी देर के बाद मैंने एकाएक झपक कर आंखे खोल उसके प्रति कहा, 'हे प्रिये ! तुमने ठीक नहीं किया, जो मुझे नींद में से जगा दिया, मैं अभी एक सुंदर स्वप्न को देख रहा था.' रुक्मिणी वोली, 'स्वामिनाथ ! आप ऐसा कौनसा सुंदर स्वप्न देख रहे थे कि, जिसके विघ्न से आप इतने व्यग्र और दुःखी हो गये ?' उत्तर में मैंने कहा, " यदि तुम सुनना ही चाहती हो तो सुनो ! मुझे घरकी द्वाररक्षा के लिये एक स्त्रीने अभी नौकर रखा था, उस स्त्रीने मेरे खाने पीने का अच्छा इन्तजाम किया, और जब रात्रि में वह बाहर जाती तब मुझे खाने के लिए एक मोदक दे जाती, बाद में वह जब सराफा बाजार में गई, मैं भी उसके पीछे पीछे गया. . .. वहां एक पुरुष आया. उसने उस स्त्री से कहा, 'कल P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust