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________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित . 305 दानके योग्य हैं.' राजाने अंजलीबद्ध हो कर नमस्कार करके साधुओं को कहा, "आप लोगोंको जो कुछ वस्त्र आदि लेना हो वह लीजिये." तब वे लोग मुहपत्ती-मुत्रवस्त्रिका से मुखको आच्छादित करके कहने लगे. “हे राजन् ! जैन धर्ममें चौवीस तीर्थकर भगवंत हुए हैं, उसमें दूसरे तीर्थंकर से लगाकर तेवीसवें तीर्थंकर प्रभु तक के बावीस मध्यम तीर्थकर प्रभु के साधुओं को राजपिण्ड+ खप शकता है; किन्तु प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ और अन्तीम तीर्थंकर श्री महावीर देव के साधुओं को 'राजपिण्ड' खपता नहीं है, यह जैन शासन में सदा के लिये आज्ञा याने मर्यादा है." शास्त्रोंमें दान के पांच प्रकार बताये है-"अभयदान और सुपात्रदान मोक्ष देने वाला है, और अनुकंपादान, उचित दान एवं कीर्ति दान ये तीन दान भोग' सामग्री को देनेवाले है. इसलिये हे राजन्! दीन दुःखी आदि लोगों को अपनी इच्छा के अनुसार दान दो. दीनों को दिया हुआ दान भी कल्याणकारक होता है." राजाने यह सुनकर दीनों को दान दिया. और बाद में अपना हाल जानने की इच्छा से अंधेर पछेडा ओढकर वह रात्रिको नगरी में घूमने निकला. महाराजा घूमता घमता जब पुरोहित के घर के पास लोकविचार सुनने को खड़ा हुआ तो देवदमनी की बहन 'हरिताली' नाम की उत्तम आभूषण और वस्त्रों को पहन कर वहाँ आ गई. और जइतु नाम की मालिका को उत्सुकतापूर्वक जाती देखकर उससे पूछा, " अभी तुम इतनी शीघ्रता से कहां जा रही हो?" + राजपिण्ड राजा की ओर से वन्न पात्र और भोजन बादि लेना P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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