________________ 304. विक्रम चरित्र लोकमें प्रसिद्धि के कारण या परंपरा के कारण और कर्म-विवाह आदि उपयोगी होनेसे लोग इन्हें दान दे रहे हैं, किन्तु ब्रह्म का अन्वेषण याने सदाचार से युक्त हो कर सत्यको . खोज करना भूल गये है। खैर कैसे भी हो.' वैसा मनमें सोच ब्राह्मणों को नौकर के द्वारा दान दिला कर रवाने किये. . ... इस के बाद जैन साधुओंको बुला कर राजाने पूछा, तब साधुओंने कहा, " दो प्रकार के गुरु होते हैं. एक कर्मकाण्ड, विवाह, शान्तिक आदि कर्म करानेवाले वे गृहस्थ कर्मगुरु कहलाते है, और दुसरे जो स्वयं निष्पाप होकर उत्तम धर्म उपदेश करते हैं. क्योंकि महावत के घारण करनेवाले बड़े धीर और भिक्षा मात्र से जीवन नर्वाह करनेवाले . तथा सामायिक में स्थित धर्मोपदेशक सद्गुरु कहलाते हैं. किन्तु सब वस्तुओंकी अभिलाषा करनेवाले, सब वस्तुओंको भक्षण करने वाले, परिग्रह रखनेवाले, ब्रह्मचर्य से रहित और मिथ्या उपदेश करनेवाले वैसे सद्गुरु कदापि नहीं हो सकते. कहा भी है कि :-. 'चार वण में जो उत्तम है-शील सत्य गुण से संयुक्त, दान उसी को देना चाहिये-जिसको देने से हो मुक्त.' - 'चारों वर्गों में जो शील सत्य आदि से युक्त हो, मोक्ष की अभिलाषा करनेवाले हों उन्हें ही दान देना, वह ही सुपात्र दान है. '+ / ऐसे निस्पृही साधुओं की ये सब सुन्दर बातें सुनकर राजान विचार किया, 'निष्पाप, निरहंकार और तप करने में तत्पर ये लोग ही + "चतुवर्णेषु ये शोल सत्यादि गुग संयुताः / तेम्वेव दीयते दान बनोशामिगतिमिः // स. 1/5.6 // . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust