________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित तोते के इस वचन को सुन कर भट्टमात्र और अग्निवैताल दोनों हर्पित हुए. शीघ्र ही वे उस नगर को देख कर चक्रेश्वरी देवी के स्थान में गये. वहाँ थोड़ी ही देर बाद सुखासन-मेना में बैठ कर सखियों सहित देवांगना से भी सुंदर एक राजकन्या आई, वहाँ आकर देवी को प्रणाम किया. जाते समय भट्टमात्र और अग्निवैताल को देख उन दोनों को परदेशी मान कर दासीद्वारा अपने महलपे बुलाये, और दोनों को दासी द्वारा स्नान करवा कर, आदरपूर्वक भोजन कराया. रात्रि में अग्निवैताल और भट्टमात्र के साथ महल में अपने पास में एक दीपक को रख कर सभी संवादों को-समस्या, वाद-विवाद और प्रश्नोत्तर के रहस्य को जाननेवाली वह सुरसुंदरी, तांबूल खाती हुई शय्या पर जा कर बैठ गई. अपनी शय्या के दोनों तरफ एक काष्ट का मनोहर बकरा व घोडा शोभा के लिये रखा, आगे चांदी और सोने का एक मणिमय सिंहासन भी रखवाया. उस समय द्वार पर स्थित भट्टमात्रने अग्निवैताल को कहा, 'अब अपना कार्य सिद्ध हो गया, अतः अब विक्रम महाराजा को यहाँ बुलाना चाहिये. इस लिये तुम बुला लाओ, मैं यहां ठेरता हूँ. महाराजा को बुलाने के लिये वहाँसे अग्निवैताल रवाना हुआ. तब भट्टमात्र मन ही मन विचारने लगा, 'अब मैं अकेला हूँ. क्या करूं?' इतने में वह बकरा बोल उठा, 'हे भट्टमात्र ! तुम यहाँ क्यों आये हो ? इस स्थान पर शक्ति बिना कोई नहीं आ सकता.' ___काष्ठ के बकरे को बोलता हुआ देख आश्चर्य चकित . 19 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust