________________ विक्रम चरित्र . हो भट्टमात्र बकरे की ओर देख रहा, और कुछ भी उत्तर नहीं दिया, इतने में बकरेने उसे इतने जोर से लात मारी कि, वह सीधा उज्जयिनी नगर के दरवाजे के बाहर आकर गिरा, तब वह विचारने लगा, 'मैंने अग्निवैताल को भेज दिया सो मूर्खता की.' जब स्वस्थ होकर उसने अपने चारों तरफ देखा तो दरवाजे को देख कर उसने जाना, 'यह तो उज्जयिनी नगरी मालूम हो रही है.' इस से वह मन ही मन चमत्कृत होकर विक्रम महाराजा के पास आया, और उसने बकरे आदि की सारी घटना कही, इतने में अग्निवैताल भी वहा आ पहुँचा. महाराजा विक्रमादित्यने विचार विनिमय कर के भट्टमात्र को नगर की रक्षा का कार्य सांपा और स्वयं अग्निवैताल के साथ उस नगर में गया. नारी को देख कर अदृश्य रूपवाले अग्निताल के साथ चक्रेश्वरी देवी के स्थान पर गये, और उसे नमस्कार कर के कुछ देर के लिये वहीं ठहरे. उस समय आकाश में काली छाया छाई हुई देख कर महाराजा विक्रमादित्य बोले, 'क्या अधी वर्षाकाल आ गया ? अतः शीघ्र स्वस्थान पर चलना चाहिये.' तब वैताल बोला, 'वही कन्या सुरसुंदरी इधर आ रही है. वह पद्मिनी स्त्री है, उसके शरीर की सुगंध से आकर्षित होकर भवरों की पंक्ति एक त्रित हुई है, और इस से आकाश काला दिख रहा है, हे राजन् ! देखो वही सुरसुंदरी कस्तुरी और काजल से सुशोभित शरीरवाली आती प्रतीत हो रही है.' इतने ही में रप की शोभा Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.