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________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग ही माता के प्रति सद्भाव रहता है। बानर का मनुष्य भाषा में कथन- यह सब बात सुनकर जाता हुआ, वह बानर क्राघ से लाल नेत्र करके वापिस लौटा तथा श्रीदत्त को दृढतापूर्वक इस प्रकार कहने लगा कि "रे पापिष्ठ दुराचारी / दूसरे के दोषों को देखने वाले ! पर्वत परकी अग्निको देखता है परन्तु अपने चरणोंके नीचे नहीं देखता / इसलिये ठीक ही कहा है कि दुर्जन व्यक्ति राई और सरसों के समान दूसरे के छोटे 2 दोषों को देखता है परन्तु 'बिल्व' फल के समान अपने दोषोंको कभी नहीं देखता तथा सब कोई केश के अग्रभाग से भी बारीक दूसरे के दोषों को देखते हैं. परन्तु हिमाचल पर्वत के शिखर के समान विशाल अपने दोषों को नहीं देख सकते / अपने मन में सभी व्यक्ति अपने को गुणी ही मानते हैं। दूसरे के दोष का वर्णन सब कोई करते हैं परन्तु अपने दोषोंको नहीं कह सकते हैं / * अपने मन से सब सुन्दर हैं सब देखे पर दोष / / अपनी कमी छिपाता जन है, करे अन्य पर रोष // हे श्रीदत्त " तुम अपने मित्रको समुद्र में फेंक कर तथा अपनी माता और कन्या को अपने बगल में लेकर दूसरे के दोष को - आस्तन्यपानाञ्जननी पशूनामादारलाभाच्च नराधमानाम् / / " आगेहके मव तु मध्यमानामाजीवितातीर्थमिरोत्तमानम्।।३५६||८ * सनः स्वात्वनि गुणवान्, सर्गः परदोषदर्शने दक्षः। "मर्वस्य चास्ति वाच्यं, न.चात्मदोषान् वदति कश्चित्" // 36 / / P.P.AC.Gunratnasuri M.S... Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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