________________ 20 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 467. महाराजा के धर्मकृत्य और धर्मकरणी महाराजा विक्रमादित्यने कैलास पर्वत के समान सौं जिनालय बनाये और उस ने सभी जिनेश्वरो के एक लाख जिनबिम्ब बनवाये-भरवाये. वर्तमान जिनेश्वर श्री वर्धमान स्वामी के सभी आगमो व सिद्धांतो को सोने और चांदी के अक्षरों में लिखवाया उन्होने एक लाख साधर्मिक बधुओ को भोजन करवाया और उपर से सुंदर अन्नपान वस्त्र आदि दे कर के उन्हे संतुष्ट किया. प्रतिदिन वह श्री जिनेश्वर देव की त्रिकाल पूजा-अर्चा करता था. इस प्रकार प्रायश्चित पूर्ण करने के लिये तथा पायोच्छेदन के लिये राजाने तीन वर्ष तक पूजादिक नियम किये.. शास्त्रों में कहा भी है कि कुसुम अक्षत, चंदन, धूप, दीप,. नवेद्य, फल और जलादि अष्ट प्रकार से जो पूजा की जाती है, वह आठों कर्मों का नाश करनेवाली होती है. निश्चय ही वह राजा विक्रमादित्य सदैव प्रासुक-उबाला हुआ पानी ही पीता था. . साथ ही निरंतर परोपकार करता हुआ, वह जीवन .व्यतीत करने लगा. और कहा भी है, "बुद्धिमान लोग शास्त्र को ज्ञान प्राप्ति के लिये, धन को दान करने के लिये, जीवन को धर्म के लिये और शरीर को परोपकार के लिये ही धारण करते हे. “परोपकाराय सतां विभूतयः" महाराजा विक्रमादित्य हमेशा ही नवकारसी आदि पच्चक्खाण करते और अष्टमी आदि पर्व तिथि के समय एकाशन P.P. Ac. Gupratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust