________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संबोमित 16 जब इस प्रकार हंस ने सूर को स्वस्थ किया तब मूर कहने लगा कि "हंस ने मुझको बाह्य तथा अन्तर दोनों ही प्रकार का चैतन्य दिया है। क्योंकि मैं अभी रौद्र ध्यान से भर कर नरक में चला जाता / परन्तु दयालु गुरु समान हंस ने मेरी रक्षा को है / हंस ने मुझको इस समय ज्ञान दृष्टि दी है / इसलिये मुझको कल्याण और सुख देने वाला विवेक प्राप्त हुआ है / एक कविने उचित ही कहा है "पर उपकारी नाश काल में, भी न मलिन मुख करता है / देखो चन्दन कुल्हाड़ी को, दे सुगन्ध मुख भरता है।" - "सज्जन व्यक्ति सदा परोपकार के लिये अपनाविनाश काल प्राप्त होने पर भी विकार को प्राप्त नहीं करते, जैसे चन्दन वृक्ष अपने खुद को काटने तथा नष्ट करने वाले कुठार के मुख को भी सुगन्धित करता है" * सज्जनों की यह रीति हमेशा चली आ रही है। इसके बाद सूर ने उठ कर उत्तम पुरुषों के समान परस्पर वै र भाव को त्याग कर, प्रेम पूर्वक हंस को क्षमा प्रदान की। पाठक गण ! इस प्रकरण में राजकुमार सूर को मुनि के द्वारा गत भव सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त हुआ और पूर्व भव सम्बन्धी वैरभाव को स्मरण करके हंस राजकुमार के साथ युद्ध किया / सूर मैदान में पराजित होकर भूमि पर गिरा और बेहोश हो गया। उस समय हंस राजकुमार ने अपने शत्रु सूर को जलादि द्वारा सिंचन कर सचेत किया। प्राचीन कालीन मानवता में अपने शत्रु पर भी प्रेमभाव दर्शाना यह सुन्दर शिक्षा इस प्रकरण से मिलती है। * सुजनो न याति विकृति परहितनिरतो विनाशकालेऽपि छेदेऽपि चन्दनतरुः सुरभयति मुखं कुठारस्य. ॥६३८।स. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust