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________________ 227 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित का नागदमनी उलझनमें पड़ गई थी, वह मनमें सोचने लगी . कि बालक-आदिके अज्ञानमूलक बचन सुनकर महाराजा कोंपकर कुछ कर बैठे. तो क्या होगा? इस तरह मन ही मन व्याकुल होने लगी, बादमें राजनौकर से बोली....नागदमनी-चलो! मैं ही महाराजा की सेवामें हाजीर होती हूँ। दोनों ही राजसभामें आये। नागदमनीको देख कर विक्रमने कहा ... . . राजा-तेरी पुत्री के वचन सुननेसे मुझे कोप नहीं हुआ है, पंचदंड वाले छत्र का स्वरूप नानने की इच्छा हुई है; इसीलिये मैंने तेरी पुत्री को राजसभामें बुलाई थी। जब तुमही आई हेा तो तुम ही वह पंचदंड वाले छत्र का वर्णन करो। . . . नागदमनी-हे राजन् ! आप उस पंचदंड वाले छत्र का वर्णन जानना ही चाहते हो तो, सर्व प्रथम आप के राजमहलसे मेरी हवेली तक सुंदर गुप्त-सुरंगमार्ग बनवाइये, फिर मेरी पुत्री के साथ चौपाट-चौसर बाजी खेलिये उसमें आप उससे तीन वार जीतो, बादमें उससे व्याह करना. हे राजन् ! मेरी पुत्री आप को पांच आदेश-कार्य बतायेगी, वह परिपूर्ण होने बाद मैं या मेरी पुत्री आपको पंचदंड वाले छत्र का सविस्तार वर्णन कह सुनायेगी। मी महाराजा-नागदमनी! आज तक तीनों भुवनमें 'पंचदंडवाले. छत्र' न कहीं देखा है, अथवा न कहीं उसका वर्णन सुना है। इस लिये तेरी पुत्री को राजसभामें मेजना, मैं शीघ्र तुम्हारे, कथनानुसार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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