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________________ - - साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 501 अपनी कन्यावस्था का त्याग कर दूं. पुण्य और कृपा के पात्र वृद्ध श्रेष्ठ पति को पाकर मैं जल्दी ही अपने स्वजनों को कृतार्थ करना चाहती हूँ. यदि आप मेरा पाणीग्रहण करें तो मैं अपने आप को आप के संग से कृतार्थ कर दूं.” रत्नम जरी की इच्छा जान कर धन्य सेठ बोला, “तुम सुरूपा है, सुंदरी योवनशालिनी है, और रूप सौभाग्यादि गुणों से शोभित तुम्हारा मिलना देवों को भी दुर्लभ सा है, किन्तु मैं तो वृद्ध हुँ. मेरे केश सफेद हो गये है, दांत गिर गये है, यौवन रूप नष्ट हो गया है, अब तो मैं धृणापात्र बन गया हूँ. अतः हे गजगामिनी, यदि तुझे विवाह करना हो तो सुंदर यौवनवान व स्वरूपवान किसी अन्य वर को पसद कर. तुम्हारे मेरे मध्य सरसव और मेरुपर्वत जितना अंतर है. कहाँ मैं ? और कहाँ तुम ? कहा भी है. अनुचित फल की इच्छावाले अधमपुरुष का निवारण विधाता ही कर देते है. जैसे अंगूर के पकने के समय में कोओं के मुंह में रोग उत्पन्न हो जाता है." . जब धन्यने रत्नमजरी को बहुत युक्ति से समझाया. तब रत्नमजरीने कहा, " आपने जो कहा वह योग्य है, पर कन्या यदि चाहे तो अपनी स्वेच्छा से वृद्ध को अपना पति पसंद कर सकती है. जैसे कि सुन्दर वर कन्या कहे, पिता कहे गुणवाना : माता धन को चाहती, ओर लोग मिष्टान्न... P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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