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________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 399 गगनधूली के गले में मनोहर सुगंधी फूलों की माला देख महाराजाने पूछा, “आप के गले की यह माला कुम्हलाती क्यों नहीं हैं ?" उसके उत्तर में गगनधूलीने अपना वृत्तान्त कहना शरू किया, “हे राजन् ! चंपानगरी में एक धन नामका शाहुकार रहता था, उसकी धन्या नाम की स्त्री थी, उसे एक पुत्र हुआ, उसका नाम बड़े महोत्सव के साथ धनकेली रखा गया, जब वह पुत्र आठ वर्ष का होने पर उसे अनेक प्रकार की विद्याएँ पंडितों से पढ़ाई गई, उसने विनय सहित विद्याएँ ग्रहण की; क्रमशः उसने यौवनावस्था में प्रवेश किया और वह व्यापार में अपने पिता का सहायता करने लगा, इस प्रकार धीरे धीरे उसने सारे व्यापार को अपने हाथ में ले लिया तब व्यापार से निवृति ले कर धनश्रेष्टिने धर्म ध्यान में मन लगाया. एक दिन धनश्रेष्ठिने अपना सारा ही धनका विभाजन किया, जिस में से अमुक हिस्सा धर्म कार्य में खर्चा, अमुक हिस्सा व्यापार कार्य के लिये रोकड़ हाथ पर रखा और अमूल्य रत्न-सोना-आदि घर की भूमि में खड्डा कर उस में गाड़ा. उन को गुप्त रूपसे छिपा दिया, क्यों कि अवसर पर या आपत्ति में काम आ सकता हैं. खड्डे में गाड़ा हुआ धन को विगत-स्थान और संख्या आदि की यादि का एक काग़ज लिखकर उस काग़ज को सोने के तावीज में बंधकर . * धनश्रेष्ठि अपने गले में रखने लगा.. जब पुत्र धनकेली अपने व्यापार में दक्ष हो गया, तब P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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