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________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 156. वनमें श्रीआदिनाथ के प्रासाद में चटका (चिड़ा)और चटक(चिड़ी) दोनों रहते थे। वे श्री आदिनाथ प्रभू की सदा पूजा करते थे। एक दिन चटकी ने कहाकि 'हे चटक ! अब घोंसला बनाओ क्योंकि मेरेनिकट भविष्य मेंही प्रसवका समय आवेगा।' परन्तु जब बहुत कहने पर भी चटक ने कुछ भी नहीं किया / तब वह चटकीने बहुत सा तृण लाकर घोंसला बना लिया / उसके बने हुए घोंसले में वे दोनों रहनेलगे / एक दिन उस वनमें बांस समूहों के परस्पर संघर्षण से दावाग्नि उत्पन्न हो गयी / उस समय चटकी ने कहाकि हे स्वामिन् ! सरोवर से जल लाकर इस घोंसले ‘पर छिटको, जिससे अग्नि इसे न जला सकेगा। बहुत कहने पर भी जब वह चटका जल लाने के लिये नहीं उठा तब वह चटकी स्वयं जल लाकर मन में कुछ सोचने लगी / परन्तु जब वह सोच ही रही थी उसी समय में दावाग्नि वहाँ पहुँच गई / और वह दुष्ट चटक उठकर वनमें कहीं अन्यत्र चला गया / चटकी दावाग्नि से जल गई / वही मैं श्रीआदिनाथ प्रभु की पूजा के प्रभाव से इस जन्म में रत्नकेतु की कन्या हुई हूँ। "अनुभव किया है पूर्व भव में, पुरुष होता है कर / इसलिये ही द्वष-मेरा, पुरुष में है मशहूर " . मुझे इसी पूर्व भर का स्मरण रहने के कारण पुरुषों से मुझ को द्वेष रह गया / पुरुष प्रायः दुष्ठ आशय वाले होते हैं। इसमें कोई संशय नहीं है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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