________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग .173 - है और छ:रिक पालता हुआ पैदल चल कर, विधि पूर्वाक जो * प्राणी महातीर्थ की यात्रा करता है उसको अधिक पुण्य होता है। / अत यह सुनकर मैंने अपने मन में महातीर्थ की इसी प्रकार यात्रा करने का निश्चय किया है / अतः हे परम कृपालु गुरुदेव ! आप * भी श्री संघ के साथ पधारने की कृपा करें तो हमें बड़ी ही प्रसन्नता होगी ! क्योंकि एक कविवर ने ठीक ललकारा है: 'सगत कीजे संतकी, निष्फल कदीय न जाय / लोहा पारस स्पर्श से, कञ्चन से बढ़ जाय / / ' संसार रूपी सागर से जो तैराता है वही तीर्थ कहलाता है / तीर्थ दो प्रकार के बताये गये हैं / (1) स्थावर और (2) जंगम | स्थावर तीर्थ में श्री जिनेश्वर प्रभूजी की * 'पंच' कल्याणक भूमि तथा मूर्तिजिन मन्दिरी आदि समझनाचाहिये तथा जंगम तीर्थमें हिलते, चलते, बोलते आदि तीर्थ / इस तीर्थमें विचरते श्री तीर्थङ्कर प्रभू से लेकर श्री गणधर प्रभू, श्री केवली प्रभू, श्री आचार्य भगवंत, श्री उपाध्याव भगवंत और सब सामान्य गुरूदेव, साधु-साध्वी वर्ग का समावेश होता है। यह + छरि-(१) एकाहारी (2) भूमि संस्थारी (3) पादचारी . (4) शुद्ध सम्यकत्वधारी (5) सचित्त परिहारी (6) ब्रह्मचारी। * पंच कल्याणक (1) च्यवन (2) जन्म (3) दीक्षा (4) केवल ज्ञान प्राप्ति (5) और निर्वाण / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust