________________ 272 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित ___734 1 प्रकरण इक्तालीसवां ....... "स्मृत्वा शत्रुजयं तीर्थ, नत्वा रैवतकाचलं / स्नात्वा गजपदे कुण्डे, पुनर्जन्म न विद्यते // " . पाठक गण ! इस विक्रम चरित्रके दूसरे भाग के प्रथम प्रकरण से ही श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी भगवंत ने महाराजा विक्रमादित्य को धर्मोपदेश देते हुए श्री सिद्धाचल महातीर्थ का नाम शत्रुजय कैसे व कब पड़ा ? इसके उत्तर में श्री सूरीश्वरजी ने अनेक सुन्दर व रोचक कथाओं से भरपूर महाराज शुकराज का विस्तृत चरित्र सुनाया। यह सब हाल प्रकरण 33 वें से प्रारम्भ होकर४०वें प्रकरण तक आप भलिप्रकार ध्यानपूर्वक पढ़ गये होंगे। .. श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी भगवंत के मुखकमल से : महाराजा विक्रमादित्यने श्री शुकराज का अद्भुत चरित्र सुनकर अपने मन में यह निश्चय किया कि महातीर्थ श्री शत्रुजय की / : धर्म ध्यान पूर्वक, गुरुदेव श्रादि चतुर्विध श्री संघ के साथ पैदल यात्रा कर अपने मानव जीवन को अवश्य सफल बनाना चाहिए और इस निश्चय के अनुसार महाराज ने गत प्रकरणमें पूज्यपाद् श्री सूरीश्वरजी भगवंत को संघ के साथ पधारने के लिए भाव भक्ति पूर्ण नम्र प्रार्थना की। ..."हे गुरुदेव ! आप श्री ने जो महातीर्थ का माहतम्य फरमाया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust